ओ प्रेयसी तुम मेरे पत्रों में मुझे क्यों ढूंढती हो
तुम क्यों मुझे कागज़ के पन्नों में , नीली स्याही में
अक्षरों में , शब्दों में और वाक्यों में ढूंढती हो ॥
सूर्य के पहले पहर से पूर्व प्रातः की पवन बन
कस्तूरी तुम्हारे केशु कुसुमों से चुरा कर मैं प्रिये
सारी वसुंधरा की हर गली हर मोड़ को
मीठी मनभावन महक से हर सुबह मैं सींचता हूँ॥
चौदहवी का चाँद जब चंचल चमकती चाँदनी संग
झीने झरोखे से तुम्हे यों बेझिझक हो झांकता है
मलिन मेघ बन मंद मंद बासंती बयार के संग
चाँद के नयनों से तुमको रातभर मैं धाप्ता हूँ ॥
कांच का टुकडा कुटिल पग में तुम्हारे जब चुभा था
नयन से नीर की मोटी धार बन मैं ही बहा था
फ़िर सखी के हाथ से पीड़ा भुलाने के लिए
तीन दिन तक बन के मरहम घाव संग मैं ही सजा था॥
हर तुम्हारी साँस का बन के हवा हिस्सा हूँ मैं
मैं हूँ ह्रदय की धड़कनओ में आत्मा के शोर में
धमनियों में उतर कर दिन रात जो दौड़ा करे
उस तुम्हारे लहू की वो लालिमा मैं ही तो हूँ॥
ओ प्रेयसी तुम मेरे पत्रों में मुझे क्यों ढूंढती हो ॥ ॥
sundar
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