Wednesday 10 June 2009

mukti

जीवन की किताब का खोलकर पन्ना लिख रही हूँ अपना अनुभव
जो खोया है ,जो पा रही हूँ ,जो पाना है
हर पल खोता सा प्रतीत होता है
विराम सा जीवन गतिशीलता से व्यतीत होता है
विशाल बाहें फैला हर और जीवन
दिखा रहा मानव को जीवन का दर्पण
दर्पण में उभरती आकृति उभारती जीवन का विचित्र स्वरुप
स्पष्ट होता मानव के समक्ष जीवन का अस्पष्ट रूप
जीवन की अस्पष्टता का स्पष्टीकरण मांगता मेरा मन
विचलित उद्वलित होता अंतर्मन
कहाँ जाकर अंत हो ,न जाने इस खोज का
कहाँ थमेगा यह युध जो समां गया मन में अंतर्द्वंद की तरह
कैसा होगा वह सुभ दिन जब आत्मा त्याग देगी यह नस्वर शरीर
मुक्त होगा जब यह प्राणी अधीर
वही क्षण आनंदमय होगा -जब मुक्ति होगी।

सपनो का एक नन्हा फूल

सपनो की महफिल में थे हम मस्त,एक आहट ने जगा दिया,
ख्वाबों का काफिला रुक यूँ गया ॥
जैसे हमारी दुनिया ही बदल गयी।
शाम की बदली छाई थी ,और अब सुबह की धूप खिल गयी .
झुरमुट की ओट में छिपा एक नन्हा फूल, मुस्कुरा के बोला -मैं खुशबू हूँ, मुझे महसूस कर मेरी तरह मुस्कुरा ,मेरी तरह जी
हम स्तब्ध से उसे एकटक निहारते रहे उसकी कोमलता को स्पर्श करना चाहा॥

फिर देखा शाम की बदली घिर आई है
हमारे आँगन में फिर सपनो की महफिल सजने लगी
वो फूल मुरझा गया
रहस्य ,रहस्य ही रह गया
क्यों जिया था ,क्यों मुरझाया ,क्यों था मुस्कुराया ?

वो मुरझा रहा था और सपने हमारी देहलीज पर जगमगा रहे थे
ठंडी हवा गुनगुना रही थी
सपनो की पालकी पर हम पसर गए
फिर सपनो की महफिल में हम मस्त हो गए
भूल कर उस फूल को हम फिर सो गए ।

Sunday 31 May 2009

ओ प्रेयसी

ओ प्रेयसी तुम मेरे पत्रों में मुझे क्यों ढूंढती हो

तुम क्यों मुझे कागज़ के पन्नों में , नीली स्याही में

अक्षरों में , शब्दों में और वाक्यों में ढूंढती हो ॥

सूर्य के पहले पहर से पूर्व प्रातः की पवन बन

कस्तूरी तुम्हारे केशु कुसुमों से चुरा कर मैं प्रिये

सारी वसुंधरा की हर गली हर मोड़ को

मीठी मनभावन महक से हर सुबह मैं सींचता हूँ॥

चौदहवी का चाँद जब चंचल चमकती चाँदनी संग

झीने झरोखे से तुम्हे यों बेझिझक हो झांकता है

मलिन मेघ बन मंद मंद बासंती बयार के संग

चाँद के नयनों से तुमको रातभर मैं धाप्ता हूँ ॥

कांच का टुकडा कुटिल पग में तुम्हारे जब चुभा था

नयन से नीर की मोटी धार बन मैं ही बहा था

फ़िर सखी के हाथ से पीड़ा भुलाने के लिए

तीन दिन तक बन के मरहम घाव संग मैं ही सजा था॥

हर तुम्हारी साँस का बन के हवा हिस्सा हूँ मैं

मैं हूँ ह्रदय की धड़कनओ में आत्मा के शोर में

धमनियों में उतर कर दिन रात जो दौड़ा करे

उस तुम्हारे लहू की वो लालिमा मैं ही तो हूँ॥

ओ प्रेयसी तुम मेरे पत्रों में मुझे क्यों ढूंढती हो ॥ ॥

Friday 29 May 2009

फुहार

टप टप टप टप बूँदें जब गिरती हैं भू पर ,
धरती से आती है सोंधी महक जो हर पल ,
महका जाती है मन के किसी कोने को,
झूमता सा दृष्टिगोचर ,होता है ये अम्बर.

Monday 11 May 2009

शब्दों के भाव

शब्द तो शब्द हैं ,तुम्हे शब्दों में पिरोती हूँ
कि तुम मेरी कृति बन जाओ
भावों के धरातल पर नवीन पुष्प संजोती हूँ
कि तुम नित खिलो
मेरे नयनो में समाओ

चंचल भावों का सुरम्य गृह मेरा मन
तुम्हारी साँसों के स्पंदन से डोले
बस छूलो मुझे आंखों से यूँ
कि तुम्हारा स्पर्श मेरी आत्मा को छू ले

मन तुम्हे शब्दों में खोजता है
कि शब्द तो बस मेरे हैं
मेरे होंठों को छूकर तुम्हारे दिल में बसेंगे
जो तार मेरे ह्रदय के ,तुम्हारे ह्रदय से जुड़ते हैं
उस बंधन की अनुभूति को अभिभूत करेंगे

प्रेम कि यह धारा ह्रदय में ऐसे बहे
कि तुम्हारी पीड़ा तुम्हारी ना रहे
उदगार मेरे प्रेम का कुछ ऐसे हो
की तुम्हारी आंखों का नीर मेरी आंखों से बहे

नित नवीन शब्दों में तब तक तुम्हे खोजती रहूंगी
जब तक यह शब्द सुन्दरतम की सीमा तक पहुंचें
शब्दों का संगम हो बने ऐसा निर्झर
जिसकी बूँदें विनय हो
और धारा शीतल

Saturday 9 May 2009

एक पाठक का प्रथम प्रयास

ओ सुंदरी तेरा रूप मानो
चाँद की शीतल सुनहरी शांत काया में कदाचित
मोतियों के वर्ण वाली ओस कोई झिलमिलाये ॥
तेरे सुगन्धित केसुओं से मादक मदुर मीठी मनोहर
महक मेरे मन को मीलों दूर से महका के जाए ॥
कितने सुहाने रात दिन थे जब तुम्हारे साथ था मैं
उन निराली वादियों में प्रति छन तुम्हारा हाथ थामे
पुष्प आभूशानो से श्रृंगार की शोभा बढाती
मृगनयनी तुम्हारे रूप का मैं पान करना चाहता था ॥
उस अनूठी रात्रि को जब तुम मेरे समीप थी
और मन तुम्हारा बस मेरा प्रस्ताव सुनना चाहता था
सीप की मानिंद तुम्हारे कर्ण के कुछ निकट आकर
चाहता था यह कहूं कितना तुम्हे मैं चाहता हूँ
फिर तुम्हारे गौर मुख के सम्मुख आ धीमे से कहूं
प्राण प्रिये तुमको प्राणों में बसाना चाहता हूँ ॥
अबके जब आएगा सावन बहेगी शीतल पवन
प्रेम की व्याकुल अधूरी आत्माएं दो मिलेंगी
देखती होगी धरा और साक्षी होगा गगन
बाहों के घेरे में तुमको बाँध कर सुन लो प्रिये
बाँध सारे तोड़ देगा इस बरस अपना मिलन

एक पाठक की तरफ़ से

नन्ही गुडिया मेरी बिटिया-मदर'स डे स्पेशल

गठरी में बंधा वक्त
जो रहता था आंगन के कोने में
वो गठरी न जाने कब खुल गई
यही वो आँगन था-जहाँ मैं ,
सरपट दौड़ती थी ,भागती ,पींगे बढाती थी
नाचती-गाती ,कभी बस गुनगुनाती थी
सींचती थी आँगन में बोए चंद वो सिक्के ,
नयी कुछ कोपलें फूटेंगी,ये सपना भी सजाती थी....

इसी आँगन की ड्योढी पर माँ मुझको बिठाती थी
चोटी गूँथ के मेरी ,काजल आंखों में भरके ,
माथा चूमती मेरा ,बल्लैयें लेती कई बार ,
फिर माथे पर मेरे एक कला टीका लगाती थी ।

रूठ जाती कभी जब मैं ,बिन बात के यूँही
तो माँ पुचकारती -नन्ही गुडिया मेरी बिटिया
कहके बुलाती थी ।

आज वो आँगन कहीं ढूंढें नही मिलता ,
माँ तो मिलती है ,बस वो बचपन नहीं मिलता
ढूंढती हूँ मैं वो ड्योढी, जहाँ फिर से मैं जा बैठूं
माँ गूंथे मेरी चोटी ,मैं न अब कभी रूठूं

तू फिर से बाँध दे ये गठरी
छिपा आँगन के कोने में
मुझे भी छिपा ले माँ
कहीं अपने ही पास॥
पुचकार फिर से माँ
इतना ही कह दे बस-नन्ही गुडिया मेरी बिटिया ,
नन्ही गुडिया मेरी बिटिया

Wednesday 6 May 2009

सुनामी

ज्वार भाटा उठा है समंदर में
सुनामी आने को है
इससे पहले की धरती डोले
शिव अपना तीसरा नेत्र खोले
रक्षा उपाय एक ही है
हम नही हमारी कलम बोले .....................

Tuesday 5 May 2009

खुशनुमा बूंदें

टप -टप ,टप-टप बूंदे जब
गिरतीं हैं भू पर
धरती से आती है
सोंधी महक जो हर पल
महका जाती है
मन के किसी कोने को
झूमता सा दृष्टिगोचर
होता है ये अम्बर