शब्द तो शब्द हैं ,तुम्हे शब्दों में पिरोती हूँ
कि तुम मेरी कृति बन जाओ
भावों के धरातल पर नवीन पुष्प संजोती हूँ
कि तुम नित खिलो
मेरे नयनो में समाओ
चंचल भावों का सुरम्य गृह मेरा मन
तुम्हारी साँसों के स्पंदन से डोले
बस छूलो मुझे आंखों से यूँ
कि तुम्हारा स्पर्श मेरी आत्मा को छू ले
मन तुम्हे शब्दों में खोजता है
कि शब्द तो बस मेरे हैं
मेरे होंठों को छूकर तुम्हारे दिल में बसेंगे
जो तार मेरे ह्रदय के ,तुम्हारे ह्रदय से जुड़ते हैं
उस बंधन की अनुभूति को अभिभूत करेंगे
प्रेम कि यह धारा ह्रदय में ऐसे बहे
कि तुम्हारी पीड़ा तुम्हारी ना रहे
उदगार मेरे प्रेम का कुछ ऐसे हो
की तुम्हारी आंखों का नीर मेरी आंखों से बहे
नित नवीन शब्दों में तब तक तुम्हे खोजती रहूंगी
जब तक यह शब्द सुन्दरतम की सीमा तक पहुंचें
शब्दों का संगम हो बने ऐसा निर्झर
जिसकी बूँदें विनय हो
और धारा शीतल
Monday 11 May 2009
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प्रिय बहन
ReplyDeleteजय हिंद
हिंदी साहित्य को समृध्द करने की दिशा में आपके द्वारा यह कारगर प्रयास है
ब्लॉग जगत में अपनी आमद दर्ज कराने का शुक्रिया सीधी चोट प्रभावशाली लगी
अगर आप अपने अन्नदाता किसानों और धरती माँ का कर्ज उतारना चाहते हैं तो कृपया मेरासमस्त पर पधारिये और जानकारियों का खुद भी लाभ उठाएं तथा किसानों एवं रोगियों को भी लाभान्वित करें
Kya baat hai.. Bahut hi khoob..
ReplyDeleteItni pyaari rachna kaise pahle padhne se chook ho gayi hamse..
Bahut badhaai aapko..
thanks sikha ji.....
ReplyDeletebahut hi sundar aur pyaari si rachana ..
ReplyDeleteman ke bhaavo ki sahi abhivyakti ...
itni acchi rachna ke liye badhai ..............
meri nayi poem padhiyenga ...
http://poemsofvijay.blogspot.com
Regards,
Vijay