गठरी में बंधा वक्त
जो रहता था आंगन के कोने में
वो गठरी न जाने कब खुल गई
यही वो आँगन था-जहाँ मैं ,
सरपट दौड़ती थी ,भागती ,पींगे बढाती थी
नाचती-गाती ,कभी बस गुनगुनाती थी
सींचती थी आँगन में बोए चंद वो सिक्के ,
नयी कुछ कोपलें फूटेंगी,ये सपना भी सजाती थी....
इसी आँगन की ड्योढी पर माँ मुझको बिठाती थी
चोटी गूँथ के मेरी ,काजल आंखों में भरके ,
माथा चूमती मेरा ,बल्लैयें लेती कई बार ,
फिर माथे पर मेरे एक कला टीका लगाती थी ।
रूठ जाती कभी जब मैं ,बिन बात के यूँही
तो माँ पुचकारती -नन्ही गुडिया मेरी बिटिया
कहके बुलाती थी ।
आज वो आँगन कहीं ढूंढें नही मिलता ,
माँ तो मिलती है ,बस वो बचपन नहीं मिलता
ढूंढती हूँ मैं वो ड्योढी, जहाँ फिर से मैं जा बैठूं
माँ गूंथे मेरी चोटी ,मैं न अब कभी रूठूं
तू फिर से बाँध दे ये गठरी
छिपा आँगन के कोने में
मुझे भी छिपा ले माँ
कहीं अपने ही पास॥
पुचकार फिर से माँ
इतना ही कह दे बस-नन्ही गुडिया मेरी बिटिया ,
नन्ही गुडिया मेरी बिटिया ।
Saturday 9 May 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
बहुत ही क़ाबिलेतारीफ, इसलिए कि ये बेहद ही मानवीय कविता है जो आज की हक़ीक़त भी है.........साथ ही जन्म लेने से मरहूम रहने वाली बच्ची की व्यथा भी।
ReplyDeleteBahut Khoob!!
ReplyDeleteबहुत सुंदर यादों का गुलदस्ता है यह कविता!
ReplyDelete