जीवन की किताब का खोलकर पन्ना लिख रही हूँ अपना अनुभव
जो खोया है ,जो पा रही हूँ ,जो पाना है
हर पल खोता सा प्रतीत होता है
विराम सा जीवन गतिशीलता से व्यतीत होता है
विशाल बाहें फैला हर और जीवन
दिखा रहा मानव को जीवन का दर्पण
दर्पण में उभरती आकृति उभारती जीवन का विचित्र स्वरुप
स्पष्ट होता मानव के समक्ष जीवन का अस्पष्ट रूप
जीवन की अस्पष्टता का स्पष्टीकरण मांगता मेरा मन
विचलित उद्वलित होता अंतर्मन
कहाँ जाकर अंत हो ,न जाने इस खोज का
कहाँ थमेगा यह युध जो समां गया मन में अंतर्द्वंद की तरह
कैसा होगा वह सुभ दिन जब आत्मा त्याग देगी यह नस्वर शरीर
मुक्त होगा जब यह प्राणी अधीर
वही क्षण आनंदमय होगा -जब मुक्ति होगी।
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शुक्रिया कमेंट के लिए। आपके दोनों ब्लॉग बेहद अच्छे हैं।
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